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वैदिक चिकित्सा का सामान्य अध्ययन (भाग 5) चरक ने संक्षेप में रोग और आरोग्य का लक्षण

वैदिक चिकित्सा का सामान्य अध्ययन

चरक ने संक्षेप में रोग और आरोग्य का लक्षण यह लिखा है-

वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों का सम मात्रा (उचित प्रमाण) में होना ही आरोग्य और इनमें विषमता होना ही रोग है।

सुश्रुत ने स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण विस्तार से दिया है-

समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।

प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥

जिससे सभी दोष सम मात्रा में हों, अग्नि सम हो, धातु, मल और उनकी क्रियाएं भी सम (उचित रूप में) हों तथा जिसकी आत्मा, इंद्रिय और मन प्रसन्न (शुद्ध) हों उसे स्वस्थ समझना चाहिए।

इसके विपरीत लक्षण हों तो अस्वस्थ समझना चाहिए। रोग को विकृति या विकार भी कहते हैं। अत: शरीर, इंद्रिय और मन के प्राकृतिक (स्वाभाविक) रूप या क्रिया में विकृति होना रोग है।

जिन साधनों के द्वारा रोगों के कारणभूत दोषों एवं शारीरिक विकृतियों का शमन किया जाता है उन्हें औषध कहते हैं। ये मख्यतः दो प्रकार की होती है : अपद्रव्यभूत और द्रव्यभूत।

अद्रव्यभूत औषध वह है जिसमें किसी द्रव्य का उपयोग नहीं होता, जैसे उपवास, विश्राम, सोना, जागना, टहलना, व्यायाम आदि।

बाह्य या आभ्यंतर प्रयोगों द्वारा शरीर में जिन बाह्य द्रव्यों (ड्रग्स) का प्रयोग होता है वे द्रव्यभूत औषध हैं। ये द्रव्य संक्षेप में तीन प्रकार के होते हैं :

(१) जांगम (ऐनिमल ड्रग्स), जो विभिन्न प्राणियों के शरीर से प्राप्त होते हैं, जैसे मधु, दूध, दही, घी, मक्खन, मठ्‌ठा, पित्त, वसा, मज्जा, रक्त, मांस, पुरीष, मूत्र, शुक्र, चर्म, अस्थि, शृंग, खुर, नख, लोम आदि;

(२) औद्भिद (हर्बल ड्रग्स) : मूल (जड़), फल आदि

(३) पार्थिव (खनिज, मिनरल ड्रग्स), जैसे सोना, चांदी, सीसा, रांगा, तांबा, लोहा, चूना, खड़िया, अभ्रक, संखिया, हरताल, मैनसिल, अंजन (एंटीमनी), गेरू, नमक आदि।

शरीर की भांति ये सभी द्रव्य भी पांचभौतिक होते हैं, इनके भी वे ही संघटक होते हैं जो शरीर के हैं। अत: संसार में कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है जिसका किसी न किसी रूप में किसी न किसी रोग के किसी न किसी अवस्थाविशेष में औषधरूप में प्रयोग न किया जा सके। किंतु इनके प्रयोग के पूर्व इनके स्वाभाविक गुणधर्म, संस्कारजन्य गुणधर्म, प्रयोगविधि तथा प्रयोगमार्ग का ज्ञान आवश्यक है। इनमें कुछ द्रव्य दोषों का शमन करते हैं, कुछ दोष और धातु को दूषित करते हैं और कुछ स्वस्थ्वृत में, अर्थात्‌ धातुसाम्य को स्थिर रखने में उपयोगी होते हैं, इनकी उपयोगिता के समुचित ज्ञान के लिए द्रव्यों के पांचभौतिक संघटकों में तारतम्य के अनुसार स्वरूप (कंपोज़िशन), गुरुता, लघुता, रूक्षता, स्निग्धता आदि गुण, रस (टेस्ट एंड लोकल ऐक्शन), वपाक (मेटाबोलिक चेंजेज़), वीर्य (फिज़िओलॉजिकल ऐक्शन), प्रभाव (स्पेसिफ़िक ऐक्शन) तथा मात्रा (डोज़) का ज्ञान आवश्यक होता है।

वर्तमान में आयुर्वेद में शि‍क्षण एवं प्रशि‍क्षण के विकास के कारण अब इसे विशि‍ष्ट शाखाओं में विकसित किया गया है ।

(1) आयुर्वेद सिद्धांत (फंडामेंटल प्रिंसीपल्स ऑफ आयुर्वेद)

(2) आयुर्वेद संहिता

(3) रचना शारीर (एनाटमी)

(4) क्रिया शारीर (फिजियोलॉजी)

(5) द्रव्यगुण विज्ञान (मैटिरिया मेडिका एंड फार्माकॉलाजी)

(6) रस शास्त्र (इंटर्नल मेडिसिन)

(12) रोग निदान (पैथोलॉजी)

(13) शल्य तंत्र (सर्जरी)

(14) शालाक्य तंत्र (आई. एवं ई.एन.टी.)

(15) मनोरोग (साईकियाट्री)

(16) पंचकर्म

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार का ध्यान आयुर्वेदिक सिद्धांत एवं चिकित्सा संबंधी शोध की ओर आकर्षित हुआ। फलस्वरूप इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं और एकाधिक शोधपरिषदों एवं संस्थानों की स्थापना की गई है जिनमें से प्रमुख ये है :

भारतीय चिकित्सापद्धति एवं होम्योपैथी की केंद्रीय अनुसंधान परिषद्‌  संपादित करें

सेंट्रल कौंसिल फॉर रिसर्च इन इंडियन मेडिसिन ऐंड होम्योपैथी नामक इस स्वायत्तशासी केंद्रीय अनुसंधान परिषद् की स्थापना का बिल भारत सरकार ने २२ मई १९६९ की लोकसभा में पारित किया था। इसका मुख्य उद्देश्य आयुर्वेदिक चिकित्सा के सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक पहलुओं के विभिन्न पक्षों पर अनुसंधान के सूत्रपात को निदेशित, प्रोन्नत, संवर्धित तथा विकसित करना है। इस संस्था के प्रधान कार्य एवं उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

  1. भारतीय चिकित्सा (आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी, योग एवं होम्योपैथी) पद्धति से संबंधित अनुसंधान को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करना।
  2. रोगनिवारक एवं रोगोत्पादक हेतुओं से संबंधित तथ्यों का अनुशीलन एवं तत्संबंधी अनुसंधान में सहयोग प्रदान करना, ज्ञानसंवर्धन एवं प्रायोगिक विधि में वृद्धि करना।
  3. भारतीय चिकित्साप्रणाली, होम्योपैथी तथा योग के विभिन्न सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पहलुओं में वैज्ञानिक अनुसंधान का सूत्रपात, संवर्धन एवं सामंजस्य स्थापित करना।
  4. केंद्रीय परिषद् के समान उद्देश्य रखनेवाली अन्य संस्थाओं, मंडलियों एवं परिषदों के साथ विशेषकर पूर्वांचल प्रदेशीय व्याधियों और खासकर भारत में उत्पन्न होनेवाली व्याधियों से संबंधित विशिष्ट अध्ययन एवं पर्यवेक्षण संबंधी विचारों का आदान प्रदान करना।
  5. केंद्रीय परिषद् एवं आयुर्वेदीय वाङमय के उत्कर्ष पत्रों आद का मुद्रण, प्रकाशन एवं प्रदर्शन करना।
  6. केंद्रीय परिषद् के उद्देश्यों के उत्कर्ष निमित्त पुरस्कार प्रदान करना तथा छात्रवृत्ति स्वीकृत करना। छात्रों को यात्रा हेतु धनराशि की स्वीकृति देना भी इसमें सम्मिलित है।

केन्द्रीय अनुसंधान संस्थान (सेंट्रल रिसर्च इंस्टिट्यूट)  संपादित करें आतुरालयों, प्रयोगशालाओं, आयुर्विज्ञान के आधारभूत सिद्धांतों एवं प्रायोगिक समस्याओं पर बृहद् रूप से शोध कर रहा है। इसके प्रधान उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

  1. रोगनिवारण एवं उन्मूलन हेतु अच्छी, सस्ती तथा प्रभावकारी औषधियों का पता लगाना।
  2.  विभिन्न केंद्रों (केंद्रीय परिषद् के) में संलग्न कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण संबंधी सुविधाएँ प्रदान करना।
  3. विभिन्न व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा “रोगनिवारण’ के दावों का मूल्याँकन करना।
  4. आयुर्वेदीयविज्ञान के सिद्धांतों का संवर्धन करना।
  5. आधुनिक चिकित्साविज्ञान के दृष्टिकोण से आयुर्वेदीय सिद्धांतों की पुनर्व्याख्या करना।
  6. विभिन्न नैदानिक पहलुओं पर अनुसंधान करना।

उपर्युक्त संस्थान के साथ (१) औषधीय वनस्पति सर्वेक्षण इकाइयाँ (सर्वे ऑफ मेडिसिनल प्लांट्स यूनिट्स), (२) तथ्यनिष्कासन चल नैदानिक अनुसंधान इकाइयाँ

इसके अतिरिक्त केंद्रीय संस्थान निम्न स्थानों पर कार्य कर रहे हैं :

आयुर्वेद : केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, चेरूथरुथी, केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, पटियाला।

सिद्ध : केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, मद्रास।

यूनानी : केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद।

होम्योपैथी : केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, कलकत्ता।

क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान (रीजनल रिसर्च इंस्टिट्यूट) संपादित करें |

इस संस्थान का कार्य भी प्राय: केंद्रीय अनंसधान संस्थान के समान ही है। ऐसे संस्थानों के साथ २५ शय्यावाले आतुरालय भी संबद्ध हैं। भुवनेश्वर, जयपुर, योगेंद्रनगर तथा कलकत्ता में क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र स्थापित किए गए हैं। इन संस्थानों के साथ भी (१) औषधीय वनस्पति सर्वेक्षण इकाइयाँ, (२) तथ्यनिष्कासन चल नैदानिक अनुसंधान इकाइयाँ तथा (३) नैदानिक अनुसंधान इकाइयाँ संबद्ध हैं।

औषधीय वनस्पति सर्वेक्षण इकाई के उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

  1. आयुर्वेदीय वनस्पतियों के (जिनका विभिन्न आयुर्वेदीय संहिताओं में उल्लेख है) क्षेत्र का विस्तार एवं परिमाण का अनुमान।
  2. विभिन्न औषधियों का संग्रह करना।
  3. विभिन्न इकाइयों (अनसंधान) में जाँच हेतु हरे पौधों, बीज एवं अन्य औषधियों में प्रयुक्त होनेवाले भाग का प्रचुर परिमाण में संग्रह करना आदि।
  4. इसके अतिरिक्त आयुर्वेदिक औषधि उद्योग में प्रयुक्त होनेवाले द्रव्य, अन्य सुंदर तथा आकर्षक पौधे, विभिन्न जंगली द्रव्यों एवं अलभ्य पौधों और द्रव्यों के संबंध में छानबीन करना।

मिश्रित भेषज अनुसंधन योजना (कंपोज़िट ड्रग रिसर्च स्कीम) संपादित करें

इस योजना के अंतर्गत कुछ आधुनिक प्रयोग में आई नवीन औषधियों का अध्ययन प्राथमिक रूस से किया जा रहा है। विभिन्न दृष्टिकोणों को लेकर अर्थात्‌ नैदानिक, क्रियाशीलता संबंधी, रासायनिक तथा संघटनात्मक अध्ययन इसके क्षेत्र में सम्मिलित किए गए हैं।

वाङमय अनुसंधान इकाई (लिटरेरी रिसर्च यूनिट)   संपादित करें

आयुर्वेद के बिखरे एवं नष्टप्राय वाङमय को विभिन्न निजी एवं सार्वजनिक पुस्तकालयों के सर्वेक्षण द्वारा संकलित करना इस इकाई का काम है। प्राचीन काल में तालपत्र, भोजपत्र आदि पर लिखे आयुर्वेद के अमूल्य रत्नों का संकलन एवं संवर्धन भी इसके प्रमुख उद्देश्य में से एक हैं।