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वेदों में पर्यावरण का वैज्ञानिक विवेचन
आज पूरा विश्व यदि किसी एक समस्या को लेकर चिन्तित है तो पर्यावरण की समस्या है। पर्यावरण और प्राणी एक दूसरे पर निर्भर है। इनके बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है। एक के प्रभावित होने पर दूसरा स्वतः प्रभावित होने लगता है। अतः पर्यावरण की संरक्षण हेतु हमें अपने चारों ओर के वातावरण को सुरक्षित रखना होगा तथा उसे अपने अनुकूल बनाना होगा। भारतीय चिन्तन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना की मानव जाति का इतिहास। प्रकृति के क्रिया कलापों के विविध गतिविधियों का वेदों में भली भाति वर्णन हैं और प्रकृति के क्रिया कलाप भी वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है। इन नियमों का उल्लघंन विनाश की प्रक्रिया को आमन्त्रण देता है। वेदों में विभिन्न सूक्तों में प्रकृति की महत्ता को दर्शाया गया है। ऋग्वेद के अग्नि में स्वरूप कार्य एवं गुणों की विस्तृत व्याख्या की गई है। यजुर्वेद में वायु के विविध रूपों एवं गुण धर्म का वर्णन है। सामवेद में जलतत्व एवं अथर्ववेद में पृथ्वी तत्व की व्याख्या की गई है। पर्यावरण के निर्माण एवं सन्तुलन में इन्हीं चार तत्वों की मुख्य भूमिका होती है। जिनका वर्णन वेदों में अत्यन्त सामवेद में विस्तृत रूप में किया गया है। प्राकृतिक वैभव के साथ-साथ वानस्पतिक एवं पशुजगत के संरक्षण के महत्व को भी बताया गया है। पर्यावरण के प्रमुख कारक है मृदा,वायु और तापमान। वेदों में पृथ्वी लोक, अन्तरिक्ष लोक और द्यलोक है जो सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान श्री हरिविष्णु द्वारा रचित एवं संरक्षित है। ऋग्वेद में वर्णित है “अधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ।। भगवान विष्णु के तीन कदम सत्व, रजस तमस के प्रतीक हैं। इनका सामन्जस्य सृष्टि निर्माण एवं संरक्षण के लिए आवश्यक है। भूमण्डल, वायुमण्डल और जलमण्डल का सम्मिलित स्वरूप जीवन की उत्पत्ति और नियमन की सम्भावना से युक्त जैवमण्डल कहलाता है। इन तीनों मण्डलों से प्राप्त ऊर्जा का समुचित प्रयोग करके ही हम वातवरण को संरक्षित रख सकते हैं। इनकी ऊर्जा के अनुपात से अत्यधिक ऊर्जा का दोहन ही प्रदूषण कहलाता है। जिसका असर पर्यावरण के सन्तुलन पर पड़ता हैं इसे वैदिक ऋषि भली भांति जानते थे तथा पर्यावरण प्रदूषण की भयावहता से बचने हेतु मनुष्य को सचेत करते रहे|
यथा-
“नि यद्यामया को गिरिर्नि सिन्धवों विधर्मने। महे सुष्माय ये मिरे । “2
अथर्ववेद के अनुसार यस्या हृदयं परमेव्योमन्
भारतीय चिन्तन में मनीषियों ने प्रकृति को मातृ तत्व के रूप में माना है
और स्वयं को उसके पुत्र के रूप में
“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः ।।
धार्मिक कार्यो में माता पृथ्वी का पूजन किया जाता है “ऊँ पृथ्वी त्वयां घृता लोका, देवि त्वं विष्णुना धता ।”
“त्वं च धारय मां देवि पवित्र कुरु वासनम्॥
वस्तुत ऋषियों ने सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को देव स्वरूप माता है। ऊर्जा का अक्षर स्रोत सूर्य को स्थावर जंगम की आत्मा कहा गया है सूर्य आत्मा जगतस्तपुषश्च और सूर्य की इस ऊर्जा का स्रोत है नाभिकीय संलयन अभिक्रियाएं नाभिकीय संल्लवन अभिक्रियाओं को निम्न प्रकार से दर्शाया जाता है।
4/H-He+2e+17.6 Mev
हाइड्रोजन → हिलियम पाजिट्रान + ऊर्जा
सभी मंत्रो में श्रेष्ठ गायत्री मंत्र
ॐ भूर्भुव स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो ।
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
ऐसी मान्यता है कि गायत्री के देवता सविता की प्रातः कालीन स्वर्णिम रश्मियां हमारे शरीर के प्रत्येक भाव पर पड़ रही है। वेदों में वर्णित आश्रम पद्धति का विभाजन प्रकृति पर आधारित था। आश्रम व्यवस्था में सम्पूर्ण मानव जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया गया है। इन चार आश्रमों में तीन आश्रम ब्रहमचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तो पूरी तरह से प्रकृति के साथ ही व्यतीत होते है। भारतीय धर्मग्रन्थ में मनुष्यों के साथ पशु पक्षियों को भी प्राकृतिक वातावरण में अत्यन्त दार्शनिक एवं ईश्वरीय ज्ञान से ओत प्रोत होने सन्देश देते है। जहां का भुसुण्डी का पक्षिराज गुरूण को श्री रामचरित का वर्णन करना उल्लेखनीय है। गृहस्थ आश्रम की शुरूआत विवाह संस्कार से आरम्भ होते हुए विभिन्न मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु वृक्षों तथा वनस्पतियों का पूजन का विधान है जो कि पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देता है। वटवृक्ष की पूजा अटल सुहाग प्राप्त करने हेतु की जाती है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार वृहस्पति के प्रतिकूल होने की स्थिति में पीपल की समिधा से हवन करने का विधान है। जिससे वृहस्पति की प्रतिकूलता समाप्त होती है। पीपल में अनेक औषधीय गुण है जिनका वर्णन आयुर्वेद में वर्णित है गीता में श्री कृष्ण ने कहा हैं
“अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां
समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ। दशहरे के अवसर पर शमी के वृक्ष को पूजने का विधान है। तुलसी को शुद्धि की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। वायुमण्डल की शुद्धि करण मे तुलसी अत्यधिक आक्सीजन प्रदान करने वाला पौधा है।
आज के बदलते परिवेश में हर आदमी शुद्ध वायु में श्वास लेने को लालयित है। बढ़ते जनसंख्या और घटते वनो के कारण वायुमण्डल में दिन प्रतिदिन प्रदूषण बढ़ रहा है।
अतः यदि हमें स्वस्थ सन्तुलित और प्रफुल्लित जीवन जीना है तो हमें वैदिक साहितय के निर्देशन के अनुसार अपने जीवन में परिवर्तन लाना होगा।
वृक्षारोपण के सन्दर्भ में वाराह पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति पीपल, नीम या बरगद का एक वृक्ष, अनार या नारंगी के दो वृक्ष, आम के पांच एवं लताओं के दस वृक्ष लगाता है वह कभी भी नारकीय पीड़ा को नहीं भोगता और न ही नरक यात्रा करता है।
हमारे घरों में होने वाली विभिन्न पूजाएं कर्मकाण्ड भी हमे प्रकृति से प्रेम करने, उसको संरक्षित रखने का संदेश देते है
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ॐ शान्तिः, पृथ्विी शान्तिरापः, # शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिविश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्ममः शान्तिः, सर्व ॐ शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि ।। ॐ शान्तिः ।,
शान्तिः शान्तिः । सर्वारिष्ट सुशान्तिर्भवतु ।।
अतः अगर हम प्रकृति का दोहन चाहे वृक्ष वाटिका का या जल का अत्यधिक दुरूपयोग करके करेंगे तो वह दिन दूर नहीं है जब हम असत्य गर्मी से संत्रस्त होंगे, कहीं अधिक वर्षा कहीं अधिक सूखा कहीं बाढ़ और कहीं भूकम्प अस्तित्व खतरे में रहेगा।
अतः हमें वैज्ञानिक नियमों का पालन करते हुए सुखी समृद्ध जीवन बिताने के लिए प्राकृति सन्तुलन बनाये रखने हेतु वेदों में वर्णित पर्यावरण की सुरक्षा हेतु वृक्षारोपण करना चाहिए और यज्ञिय प्रक्रियाओं द्वारा वातावरण को परिशुद्ध करना चाहिए।
डॉ० पूजा मिश्रा श्री नगर कालोनी, गुरूबाग
वाराणसी