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वैदिक चिकित्सा का सामान्य अध्ययन आयुर्विज्ञान (भाग 4)

वैदिक चिकित्सा का सामान्य अध्ययन आयुर्विज्ञान

आयुर्विज्ञान

वेद के वैदिक चिकित्सा पद्धति है आयुर्विज्ञान जिसमें मुख्य भूमिका होम्योपैथिक पर जड़ी बूटी का है साथ ही साथ आयुर्विज्ञान ऐसा विज्ञान है जिसकी मान्यता पहुंच ज्यादा है जो आयु एवं साख से संबंधित विज्ञान के विषय में विस्तार एवं विज्ञानात्मक विधि से बढ़कर करें वही आयुर्विज्ञान है |आयुर्वेद। जो आयु का ज्ञान कराता है वह आयुर्वेद है |

परिचय:

आयुर्वेद के संपूर्ण इतिहास का ज्योतिपुंज सर्वप्रथम वेदों में दृष्टिगोचर होता है |वेदों में सभी प्रकार का ज्ञान और विज्ञान निहित है ऋग्वेदमें आयुर्वेद के महत्व तथ्यों तथा यथा स्थान पर विवेचन प्राप्त होता है। वैसे तो सामवेद एवं यजुर्वेद में भी आयुर्वेद विषय का सामग्री प्राप्त होता है आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ अथर्व वेद है इसमें आयुर्वेद के प्रायः सभी उपागों का विस्तृत वर्णन मिलता है |

अथर्ववेद आयुर्विज्ञान का मूल आधार है प्रस्तुत पाठ में आज विज्ञान के उद्भव एवं विकास के सतत क्रम एवं विभिन्न सोपान की सरल दृष्टिकोण से समझाया जाता है वेद में आयुर्वेद में चरक का कथन-आयुर्वेदयति इति आयुर्वेदः

जो आयु का ज्ञान कराता है वह आयुर्वेद है और अधिक स्पष्ट करते हुए चरक कहते हैं कि आज वेद ही मनुष्य की आयु सुख-दुख हित अहित पथ्य अपथ्य ग्राह्य अग्राह्य आदि कारणों का वर्णन करता है |महर्षि चरक ने आयुर्वेद को शाश्वत कहा है क्योंकि जब से आयु जीवन का प्रारंभ हुआ है और तब से जीव को ज्ञान हुआ है तभी से आयुर्वेद की सत्ता प्रारंभ होती है।

महर्षि सुश्रुत का कथन-

जिसमें आयु के हित कार और अहित कार तत्व भली-भांति विचार हो और जो दीर्घ आयु प्राप्त कर आता हो सभी संहिता कारों नेवी ब्रह्मा से आयुर्वेद का प्रादुर्भाव बताया है अतः इसमें आयुर्वेद का शाश्वत तत्व श्वत: सिद्ध होता है।

आयुर्वेद ही वस्तुतः आयुर्विज्ञान है जिस के संकेत ऋग्वेद में बृहद रूप में मिलते हैं वेद में अनेकों सुक्तों वह मंत्रों के द्वारा आयुर्विज्ञान एवं चिकित्सा शास्त्र को स्पष्ट किया गया है |ऋग्वेद वैदिक काल से ही आयुर्विज्ञान स्थापित था इसे और अधिक विस्तार ऋग्वेद के उपवेद आयुर्वेद से प्राप्त हुआ ऋग्वैदिक काल से ही आयुर्विज्ञान स्थापित था इसे और अधिक विस्तार ऋग्वेद के उपवेद आयुर्वेद से प्राप्त हुआ था ऋग्वैदिक काल से ही प्रारंभ हुई आयुर्विज्ञान की यह परंपरा उत्तरोत्तर और अधिक विस्तार को प्राप्त करती हुई समृद्ध होती गई |स्वस्थ व्यक्ति का आदर्श लक्षण

समदोष: समाग्निश्च समधातुमल क्रिय:।
प्रसन्नत्मेद्रियमना: स्वस्थ इत्याभिधीयते।।

ये सुश्रुत की ही देन है। शल्य तंत्र का प्रमुख ग्रंथ होने के कारण सुश्रुत में शरीर का वर्णन विस्तृत रूप में प्राप्त होता है।त्वचा और कला का विशद वर्णन सुश्रुत की सूक्ष्म दृष्टि का परिचारक है प्रकृति का भी विस्तार से वर्णन है। अस्थियों की संख्या ,प्रकार, संधि, स्नायु ,वर्णन भी नवीन ढंग से किया का गया है। मर्म का वर्णन अत्यंत मौलिक है। इसे भी शल्य विषयाध्र्द कहा गया है,रक्त का शिराओं में संचरण तथा उसके वर्ण के अनुसार शिराओं का अरुणा नीला और गौरी के विभाग भी नवीन मान्यता है योनि, गुदा, गर्भाशय वह वस्ति का विशद वर्णन है।
नाभिस्या : प्राणिनां प्राणा:

नाभि में प्राणों की स्थिति मानी गई है वायु और जल शोधन की विधि भी सुश्रुत ने सविस्तार वर्णित की है,सुश्रुत का काल 20वीं शतीं है|चिकित्सा के बारे में बात करें तो कई प्रकार के हैं |

जैसे – जल चिकित्सा, सूर्य चिकित्सा, सूर्य किरण चिकित्सा, वायु एवं प्राणायाम चिकित्सा, अग्नि चिकित्सा,, मृतिका चिकित्सा, यज्ञ चिकित्सा, मानस या मनोवैज्ञानिक चिकित्सा, मंत्र चिकित्सा, हस्त स्पर्श चिकित्सा, एवं उपचार चिकित्सा, ऋग्वैदिक काल में इन समस्त प्राकृतिक चिकित्सा का वर्णन आया है |

वैदिक वांग्मय में यज्ञ अथवा मंत्र चिकित्सा पद्धति के अनेकों मंत्र प्राप्त है |

आयुर्वेद = आयु:+वेद = आयुर्वेद

विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है यह विज्ञान कला और दर्शन का मिश्रण है |

चरक संहिता द्वारा 

हिताहितं सुखों दु:खमायुस्तस्य हिताहितं मानें च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेद : से उच्यते।
  • आयुर्वेद के ग्रंथों तीन दोषों त्रिदोष वात, पित्त ,कफ, के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य इसी प्रकार संपूर्ण आयुर्वेद चिकित्सा के आठ अंग माने गए हैं,जिसे अष्टांग वैधक कहते हैं|
  • आयुर्वेदीय चिकित्सा विधि सर्वांगीण है। आयुर्वेदिक चिकित्सा के उपरान्त व्यक्ति की शारीरिक तथा मानसिक दोनों में सुधार होता है।
  • आयुर्वेदिक औषधियों के अधिकांश घटक जड़ी-बूटियों, पौधों, फूलों एवं फलों आदि से प्राप्त की जातीं हैं। अतः यह चिकित्सा प्रकृति के निकट है।
  • व्यावहारिक रूप से आयुर्वेदिक औषधियों के कोई दुष्प्रभाव (साइड-इफेक्ट) देखने को नहीं मिलते।
  • अनेकों जीर्ण रोगों के लिए आयुर्वेद विशेष रूप से प्रभावी है। आयुर्वेद न केवल रोगों की चिकित्सा करता है बल्कि रोगों को रोकता भी है।
  • आयुर्वेद भोजन तथा जीवनशैली में सरल परिवर्तनों के द्वारा रोगों को दूर रखने के उपाय सुझाता है।
  • आयुर्वेदिक औषधियाँ स्वस्थ लोगों के लिए भी उपयोगी हैं।
  • आयुर्वेदिक चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती है क्योंकि आयुर्वेद चिकित्सा में सरलता से उपलब्ध जड़ी-बूटियाँ एवं मसाले काम में लाये जाते हैं।
  • पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचना काल ईसा के ३,००० से ५०,००० वर्ष पूर्व तक का माना है। ऋग्वेद-संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है। अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद की रचनाकाल ईसा पूर्व ३,००० से ५०,००० वर्ष पहले यानि सृष्टि की उत्पत्ति के आस-पास या साथ का ही है।
  • आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथो के अनुसार यह देवताओं कि चिकित्सा पद्धति है जिसके ज्ञान को मानव कल्याण के लिए निवेदन किए जाने पर देवताओं के वैद्य ने धरती के महान आचार्यों को दिया। इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ना जैसी कई चमत्कारिक चिकित्साएं की थी। अश्विनीकुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर अलग अलग संप्रदायों के अनुसार उनके प्राचीन और पहले आचार्यों आत्रेय / सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आयुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक। ब्रह्मा, ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम ‘तन्त्र’ रखा ।

ये आठ भाग निम्नलिखित हैं :

  • शल्यतन्त्र (surgical techniques)
  • शालाक्यतन्त्र (ENT)
  • कायचिकित्सा (General medicine)
  • भूतविद्या तन्त्र (Psycho-therapy)
  • कुमारभृत्य (Pediatrics),
  • अगदतन्त्र (Toxicology)
  • रसायनतन्त्र (renjunvention and Geriatrics)
  • वाजीकरण (Virilification, Science of Aphrodisiac and Sexology)

इस अष्टाङ्ग (आठ अंग वाले) आयुर्वेद के अन्तर्गत देहतत्त्व, शरीर विज्ञान, शस्त्रविद्या, भेषज और द्रव्य गुण तत्त्व, चिकित्सा तत्त्व और धात्री विद्या भी हैं। इसके अतिरिक्त उसमें सदृश चिकित्सा (होम्योपैथी), विरोधी चिकित्सा (एलोपैथी), जलचिकित्सा (हाइड्रोपैथी), प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी), योग, सर्जरी, नाड़ी विज्ञान (पल्स डायग्नोसिस) आदि आजकल के अभिनव चिकित्सा प्रणालियों के मूल सिद्धान्तों के विधान भी 2500 वर्ष पूर्व ही सूत्र रूप में लिखे पाये जाते हैं ।

आयुर्वेद का अवतरण संपादित करें
चरक मतानुसार (आत्रेय सम्प्रदाय)

आयुर्वेद के ऐतिहासिक ज्ञान के सन्दर्भ में, चरक मत के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से दोनों अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन किया।[3] च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास में ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता (अग्निवेश तंत्र) का निर्माण किया- जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार-स्तम्भ है।

सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)

धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन के पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक हजार अध्यायों तथा एक लाख श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे दोनों अश्विनीकुमारों ने, तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया |

स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना संपादित करें इसके लिए अपने शरीर और प्रकृति के अनुकूल देश, काल आदि का विचार करना नियमित आहार-विहार, चेष्टा, व्यायाम, शौच, स्नान, शयन, जागरण आदि गृहस्थ जीवन के लिए उपयोगी शास्त्रोक्त दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतुचर्या का पालन करना, संकटमय कार्यों से बचना, प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करना, मन और इंद्रिय को नियंत्रित रखना, देश, काल आदि परिस्थितियों के अनुसार अपने अपने शरीर आदि की शक्ति और अशक्ति का विचार कर कोई कार्य करना, मल, मूत्र आदि के उपस्थित वेगों को न रोकना, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि से बचना, समय-समय पर शरीर में संचित दोषों को निकालने के लिए वमन, विरेचन आदि के प्रयोगों से शरीर की शुद्धि करना, सदाचार का पालन करना और दूषित वायु, जल, देश और काल के प्रभाव से उत्पन्न महामारियों (जनपदोद्ध्वंसनीय व्याधियों, एपिडेमिक डिज़ीज़ेज़) में विज्ञ चिकित्सकों के उपदेशों का समुचित रूप से पालन करना, स्वच्छ और विशोधित जल, वायु, आहार आदि का सेवन करना और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना, ये स्वास्थ्यरक्षा के साधन हैं।

आयुर्वेद का अर्थ प्राचीन आचार्यों की व्याख्या और इसमें आए हुए ‘आयु’ और ‘वेद’ इन दो शब्दों के अर्थों के अनुसार बहुत व्यापक है। आयुर्वेद के आचार्यों ने ‘शरीर, इंद्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग’ को आयु कहा है।[4] संपत्ति (साद्गुण्य) या विपत्ति (वैगुण्य) के अनुसार आयु के अनेक भेद होते हैं, किंतु संक्षेप में प्रभावभेद से इसे चार प्रकार का माना गया है :[5]

(१) सुखायु :किसी प्रकार के शीरीरिक या मानसिक विकास से रहित होते हुए, ज्ञान, विज्ञान, बल, पौरुष, धनृ धान्य, यश, परिजन आदि साधनों से समृद्ध व्यक्ति को “सुखायु’ कहते हैं।

(२) दुखायु :इसके विपरीत समस्त साधनों से युक्त होते हुए भी, शरीरिक या मानसिक रोग से पीड़ित अथवा निरोग होते हुए भी साधनहीन या स्वास्थ्य और साधन दोनों से हीन व्यक्ति को “दु:खायु’ कहते हैं।

(३) हितायु :स्वास्थ्य और साधनों से संपन्न होते हुए या उनमें कुछ कमी होने पर भी जो व्यक्ति विवेक, सदाचार, सुशीलता, उदारता, सत्य, अहिंसा, शांति, परोपकार आदि आदि गुणों से युक्त होते हैं और समाज तथा लोक के कल्याण में निरत रहते हैं उन्हें हितायु कहते हैं।

(४) अहितायु :इसके विपरीत जो व्यक्ति अविवेक, दुराचार, क्रूरता, स्वार्थ, दंभ, अत्याचार आदि दुर्गुणों से युक्त और समाज तथा लोक के लिए अभिशाप होते हैं उन्हें अहितायु कहते हैं।

इस प्रकार हित, अहित, सुख और दु:ख, आयु के ये चार भेद हैं। इसी प्रकार कालप्रमाण के अनुसार भी दीर्घायु, मध्यायु और अल्पायु, संक्षेप में ये तीन भेद होते हैं। वैसे इन तीनों में भी अनेक भेदों की कल्पना की जा सकती है।

‘वेद’ शब्द के भी सत्ता, लाभ, गति, विचार, प्राप्ति और ज्ञान के साधन, ये अर्थ होते हैं और आयु के वेद को आयुर्वेद (नॉलेज ऑव सायन्स ऑव लाइफ़) कहते हैं। अर्थात्‌ जिस शास्त्र में आयु के स्वरूप, आयु के विविध भेद, आयु के लिए हितकारक और अप्रमाण तथा उनके ज्ञान के साधनों का एवं आयु के उपादानभूत शरीर, इंद्रिय, मन और आत्मा, इनमें सभी या किसी एक के विकास के साथ हित, सुख और दीर्घ आयु की प्राप्ति के साधनों का तथा इनके बाधक विषयों के निराकरण के उपायों का विवचेन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं। किंतु आजकल आयुर्वेद “प्राचीन भारतीय चिकित्सापद्धति’ इस संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता है।