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वर्णाश्रम - व्यवस्था
वर्णाश्रम व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है जिसकी नींव त्रेतायुग में रखी गयी और यह आज (कलियुग) भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस युग में थी। यह व्यवस्था न तो विशुद्धं रूप से वर्ण-व्यवस्था है और न ही आश्रम-व्यवस्था। इसके अन्तर्गत उन कर्मों का निर्धारण है जो किसी विशेष आश्रम में किसी विशेष वर्ण के लिए निर्धारित किये गये हैं, उदाहरण के लिए-ब्रह्मचर्य आश्रम में केवल ब्राह्मण वर्ण का ब्रह्मचारी ही पलाश का दण्ड धारण कर सकता है अन्य वर्ण का ब्रह्मचारी नहीं। अन्य वर्णों में क्षत्रिय के लिए गूलर का और वैश्य के लिए विल्व (बेल का वृक्ष) का दण्ड धारण योग्य बताया गया है। वर्णाश्रम शब्द की बात आने पर हमारे समक्ष दो सिद्धान्त स्वतः ही आ जाते हैं|
वर्ण व्यवस्था
वर्ण-व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत मानव जीवन की समाज में उचित व संतुलित प्रगति के लिए समाज को उसके गुण, स्वभाव व कर्म के आधार पर चार वर्णों में विभाजित किया गया
वर्णों के निर्धारित कर्तव्य संक्षेप में निम्नलिखित हैं
- ब्राह्मण कर्तव्य दान लेना दान देना, यज्ञ करना-यज्ञ कराना अध्ययन-अध्यापन, सच्या तर्पण, अग्न्याधान आदि ।
- क्षत्रिय कर्तव्य वेदाध्ययन यज्ञ करना, दान देना युद्ध के लिए सदैव तत्पर रहना, शरणार्थी व सज्जन की सुरक्षा तथा दुष्टों का दमन प्रजापालन व शस्त्रास्त्र द्वारा जीविकोपार्जन ।
- वैश्य कर्तव्य वेदाध्ययन, यज्ञ करना, दान देना। पशुपालन, व्यापार व कृषि कार्य द्वारा जिविकोपार्जन ।
- शूद्र कर्तव्य मन्त्रहीन यज्ञ करना, दान देना, तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य) की सेवा करना। पशुपालन, क्रय-विक्रय व शिल्प कार्य से जीविकोपार्जन ।
आश्रम व्यवस्था
यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के समुचित विकास और समाज की संतुलित प्रगति के लिए उसके जीवन को 100 वर्ष का मानकर क्रमश 25-25 वर्ष के क्रम में रखकर चार भागों में विभाजित किया गया है। व्यक्ति के जीवन के ये चार भाग चार आश्रम के नाम से जाने जाते हैं जो इस प्रकार हैं-
- ब्रह्मचर्य आश्रम
- गृहस्थ आश्रम
- वानप्रस्थ आश्रम
- सन्यास आश्रम
यह विभाजन मानव जीवन के सौ वर्षों के समय के संरक्षण पर आधारित है। चार आश्रमों में से प्रथम दो आश्रमों में व्यक्ति अपना विकास कर सांसारिक सुखों का उपभोग करता है और अंतिम दो आश्रमों में समाज की प्रगति हेतु तत्पर होकर सर्वोच्च लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्ति के लिए अग्रसर होता है। चार आश्रमों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित प्रकार है|
ब्रह्मचर्य आश्रम- यह आश्रम विद्यार्थी व विद्यार्थी जीवन से सम्बन्धित है और 25 वर्ष का है। इसके अन्तर्गत विद्यार्थी व विद्यार्थी जीवन से सम्बन्धित कुछ विशेष नियम निर्धारित किये गये हैं। इस आश्रम के अनुसार विद्यार्थी वही होता है जो सन्ध्याकर्म, में अग्निहोत्र व ईश्वर उपासना करता है, गुरुकुल में रहकर अनुशासन के साथ वेदाध्ययन करता है, ग्रंथों का सम्मान व उनकी सुरक्षा करता है; मृगचर्म, मेखला, जटा, दण्ड, कमण्डलु, यज्ञोपवीत तथा हाथ में कुश धारण करता है, भूमि पर सोता है; अल्पाहारी होता है, रात में भोजन नहीं करता है और सायं व प्रातः काल भिक्षान्न भोजन ग्रहण करता है, मांस व मद्य (मदिरा) का सेवन नहीं करता है, गुरु की सेवा व उनका सदैव सम्मान करता है; स्त्री सम्पर्क व सौन्दर्य प्रशाधन से दूर रहता है; जिसकी इन्द्रियाँ नियंत्रित होती है, जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, निद्रा, निन्दा व चुगली से दूर रहता है सदैव अतिथि का सम्मान करता है।
गृहस्थ आश्रम– यह आश्रम मनुष्य के वैवाहिक जीवन से सम्बन्धित है और 25 वर्ष का है। इसके अन्तर्गत मनुष्य के वैवाहिक जीवन से सम्बन्धित कुछ कर्म व नियम निर्धारित किये गये हैं। इस आश्रम के अनुसार वही व्यक्ति गृहस्थ है जो पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) के अनुसार जीवन व्यतीत करता है, धर्मपूर्वक धन अर्जित कर अपने सम्पूर्ण कार्यों को सम्पन्न करता है; पंचमहायज्ञ (बडा, पितृ, देव, भूत व अतिथि यज्ञ) का पालन करता है, अर्थात् वेदाध्ययन, आद्ध, हवन, बलि कर्म और अतिथि सत्कार करता है; तिरस्कार, अहंकार निन्दा, घात, कठोरता तथा स्त्री-परिग्रह से दूर रहता है; दान करता है, भूखे को भोजन कराता है तथा ब्रह्मचर्य व्रत के पालन हेतु पर्व-त्योहार को छोड़कर पत्नी से केवल ऋतुकाल में संसर्ग करता है। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास इत्यादि तीनों आश्रमों का पोषक होने के कारण गृहस्थ आश्रम पुराणों में सर्वश्रेष्ठ आश्रम कहा गया है।
वानप्रस्थ आश्रम- यह आश्रम व्यक्ति के प्रौढावस्था से सम्बन्धित है तथा 25 वर्ष का है। इस आश्रम के अनुसार व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होकर वैराग्य प्राप्ति हेतु अकेले या पत्नी के साथ वन की ओर प्रस्थान करता है। इसके अनुसार वही व्यक्ति वानप्रस्थी है जो मृगचर्म, जटा, कमण्डलु, दण्ड व वल्कल वस्त्र धारण करता है; आहार में पर्ण, मूल, फल ग्रहण करता है: भूमिशयन और त्रिकाल स्नान करता है, शाम में भोजन नहीं करता है; स्वाध्यायी होता है, देवपूजन, हवन, अतिथि सत्कार करता है, भिक्षा देता है; शान्त, तपस्वी और न्यायप्रिय होता है, सबका आतिथ्य स्वीकार करता है, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है; शीत, वायु, अग्नि, वर्षा व धूप आदि को सहन करता है।
सन्यास आश्रम- वायु व विष्णु पुराण के अनुसार सन्यास आश्रम पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान करने वाला तथा ब्रह्मलोक प्रदायक है। यह आश्रम भी 25 वर्ष का है। जब व्यक्ति के अन्दर सभी कर्मों व वस्तुओं के प्रति वैराग्य की भावना आ जाये तो उसे सन्यास आश्रम में प्रवेश करना चाहिए। इसके अन्तर्गत सन्यासी जीवन के कुछ नियम व कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं। इसके अनुसार वही व्यक्ति सन्यासी होता है जो सबके साथ समान व्यवहार करता है, मन-वचन-कर्म से अहिंसा वृत्ति का पालन करता है; केवल प्राण रक्षा हेतु भिक्षाटन करता है. अल्पाहारी होता है, रात में भोजन नहीं करता है; एक वस्त्र, दण्ड व कमण्डल धारण करता है; आसक्ति, सम्मान, लाभ, काम, क्रोध, लोभ, मोह, दर्प, स्तेय, संभोग, विलास, पाखण्ड, मांस व मद्यपान से दूर रहता है, पवित्र, सावधान, दयालु, क्षमाशील सदाचारी, सत्यवान, मौन व धैर्यवान होता है जिसकी षड् इन्द्रियाँ नियंत्रित होती है, सदैव ईश्वर- ध्यान व तप में लीन होता है, लोक कल्याण व परार्थे हित में सदैव तत्पर होता है: आश्रयहीन, शिष्यहीन, जीविका हीन (खेती, व्यापार आदि से दूर रहना) होता है, अकेले व एकांत जीवन व्यतीत करता है, तर्क-वितर्क, वाद-विवाद व व्याख्यान से दूर रहता है।
वर्तमान में वर्णाश्रम–व्यवस्था
वर्तमान में यदि वर्णाश्रम व्यवस्था की बात की जाये तो अभी” भी बहुत से ऐसे कार्य हैं जो वर्णानुसार ही किये जाते हैं, उदहरण के लिए वेदाध्ययन, यज्ञ करना–कराना, यज्ञोपवीत व शिखा धारण करना आदि। किन्तु जब वर्ण और आश्रम दोनों की अलग–अलग बात की जाती है तो अनेक परिवर्तन देखने को मिलते हैं, उदाहरण के लिए प्राचीन वर्ण विभाजन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के रूप में न होकर सामान्य(General), ओबीसी(OBC), एस. सी.(SC) और एस.टी.(ST) के रूप में देखने को मिलता है।
गुण व कर्म अनुसार वर्ण-व्यवस्था का एक सामान्य रूप आज भी हमें समाज में देखने को मिलता है, उदाहरण के लिए जो अध्ययन–अध्यापन का कार्य कर रहे हैं. वे ब्राह्मण हैं जैसे- शिक्षक व शिक्षार्थी, जो समाज में सुरक्षा व्यवस्था व दुराचारियों को दण्डित करने का कार्य कर रहे हैं वे क्षत्रिय है जैसे- पुलिस, सैनिक, जो खेती व व्यापार का कार्य कर समाज के पालन पोषण का कार्य कर रहे हैं वे वैश्य है जैसे- किसान दुकानदार, व्यापारी और जो इन तीनों (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य) के घरों में सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं में सेवा कार्य कर रहे हैं वे सभी शूद्र हैं जैसे-सफाईकर्मी, नौकर, चपरासी आज लोकतंत्रात्मक युग होने के कारण कार्यों का विभाजन वर्णानुसार नहीं है सभी वर्ण सभी वर्गों का कार्य कर रहे हैं। प्रतिस्पर्धात्मक युग होने के कारण आज हर कला हर ज्ञान सभी वर्ण के पास है उदाहरण के लिए अध्ययन-अध्यापन का कार्य चारों वर्ण कर रहा है किन्तु आज भी प्राचीन वर्ण व्यवस्था का रूप कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में देखने को मिल जाता है उदाहरण के लिए सिवर सफाई का कार्य एक निम्न वर्ण का व्यक्ति ही करता है, बेरोजगारी के कारण उच्च वर्ण का व्यक्ति निम्न स्तर का कार्य तो ले लेता है किन्तु उसे करवाता निम्न वर्ण से है।
पुराणों के अनुसार यदि वर्तमान (कलियुग) में वर्ण व्यवस्था की बात की जाये तो आज केवल एक ही वर्ण का अस्तित्व है और वह है शूद्र क्योंकि आज सभी लोग वेतन लेकर देश व समाज की सेवा का कार्य कर रहे हैं. इसकी पुष्टि स्वयं लिंग पुराण करते हुए कहता है कि कलियुग में केवल तामस गुण ही प्रधान होता है इसलिए कलियुग में केवल शूद्र प्रधान है (लिंग पुराण, अध्याय-39, श्लोक सं0-13)
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार भी कलियुग में चारों वर्ण एक जाति अर्थात शूद्र वर्ण के हो जायेगे। आज भी समाज में कुछ लोग हैं जो वर्णानुसार कार्य कर रहे हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत कम है लगभग न के बराबर है।
आश्रम व्यवस्था की बात की जाये तो वर्तमान में बहुत कम लोग हैं जिनकी आयु 100 वर्ष की होती है और बहुत कम लोग हैं जो आश्रमानुसार जीवन व्यतीत कर रहे हैं शायद न के बराबर क्योंकि पुराणानुसार कलियुग में आश्रम आधारित जीवन व्यतीत करना कलियुग का स्वभाव नहीं है। आज चार में से केवल दो ही आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ) विशेष रूप से देखने को मिलते हैं, शेष दो आश्रमों (वानप्रस्थ, सन्यास) का रूप हमें देखने को नहीं मिलता और यदि मिलता भी है तो उसका स्वरूप वैदिक नहीं है। वर्तमान में विशुद्ध रूप से किसी भी आश्रम के पालन की बात नहीं की जा सकती क्योंकि आज सभी आश्रम दुषित हैं। आज किसी भी आश्रम की समय सीमा निर्धारित नहीं है। ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्यार्थी की कोई नियमित दिनचर्या नहीं है। वह अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ वे सभी कार्य करता है जो उसके लिए वर्जित हैं। गृहस्थ आश्रम में एक गृहस्थ विशुद्ध गृहस्थ नहीं है क्योंकि वह न तो पुरुषार्थ अनुसार जीवन व्यतीत करता है और न ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है। वानप्रस्थ आश्रम का तो आज स्वरूप ही नहीं है, प्रौढावस्था में व्यक्ति घर में रहकर घरेलू क्लेश का कारण बन जाता है और सन्यास आश्रम का भी विशुद्ध स्वरूप नहीं है क्योंकि एक विशुद्ध सन्यासी वही होता है जो अपनी समस्त तृष्णाओं का त्याग कर वैराग्य प्राप्त कर लिया हो, जिसको सांसारिक जीवन से कोई मतलब न हो। आज सन्यासी के नाम पर लोग देश व सामज के लिए दुख व पीड़ा का कारण बने हुए हैं। आज भी कुछ लोग हैं जो आश्रम अनुसार जीवन व्यतीत कर रहे हैं किन्तु उसका स्वरूप वैदिक है, ऐसा कहना अत्यन्त दुष्कर है|
वर्तमान समाज में लोगों के अलग-अलग आचरण व स्वभाव के अनुसार उनके जीवन को वर्णाश्रम के अन्तर्गत समेटना बहुत कठिन है।
नोट :- स्त्रियों के लिए भी वर्णाश्रम के वही नियम हैं जो पुरुषों के लिए हैं। पुराणों में उनके लिए अलग से किसी वर्णाश्रम नियम की बात नहीं की गयी है।
- संध्यातर्पण या संध्याकर्म मंत्रोच्चार व दीप प्रज्ज्वलन से ईश्वर वंदना । अगन्याधान या अग्निहोत्र- नित्य वैदिक यज्ञ अर्थात् यज्ञ वेदी में अग्नि प्रज्ज्वलित करघी का हवन करना ।
- मेखला करधनी (कमर में लपेटकर पहनने वाली डोरी या सूत्र) दण्ड छड़ी। स्त्री-परिग्रह स्त्री भोग में लीन। ऋतुकाल मासिक धर्म के उपरांत 15 दिन जिसमें स्त्रियाँ गर्भधारण के योग्य होती है। वल्कल वस्त्र वृक्ष की छाल से बना वस्त्र |
- त्रिकाल स्नान- सूर्योदय, दोपहर और सूर्यास्त के दौरान स्नान।
- दण्डी स्वामी साधारण भाषा में वह सन्यासी जो हाथ में काष्ठ दण्ड धारण करता है वह दण्डी स्वामी है। पुराणों के अनुसार जिनके पास वाग्दण्ड, कर्मदण्ड व मनोदण्ड आदि ये तीन दण्ड होते हैं वही वास्तव में दण्डी स्वामी कहलाता है, केवल काष्ठ दण्ड धारण करने से वह दण्डी स्वामी नहीं होता अर्थात् जो सन्यासी वाणी से मौन शरीर से निश्चेष्ट और मन से प्राणायाम का पालन कर आत्मकेन्द्रित होता है वही दण्डी स्वामी है।